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Department of Electronics and Communication Engineering, Nirma University
Khoj – The Poetry
दास्ााँ-ए-ज िंदगी
दरार
वह वसूंत ऋतु िी नरि ध प सी थी,
बैठ जाती ह ूं मिट्टी पे अक्सर िै था उन पत्तो सा साफ,
क्योंमि िुझे अपनी औिात अच्छी लगती है वह शीतल हवा िें मखलमखलाती,
िैंने सिुूंदर से सीखा है जीने िा सलीिा, िै झुखिर िरता उसे सलाि,
चुपचाप िें रहना और अपनी िौज िें रहना।।
ऐसा नहीं है मि िुझिें िोई ऐब नहीं है पर, वह िेर सािने चिि उठती,
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सच िहती ह ूं िुझ िें िोई फरब नहीं है
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और ले आती िेर चेहर पे िुस्िान,
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जल जात हैं िेर अूंदाज से िेर दुश्िन
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क्योंमि एि िुद्दत से िैंन ना िोहब्बत बदली ना दोस्त बदले िै बस ढलती ध प िो देखता,
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एि घडी खरीद िर हाथ िें क्या बाूंध ली िी वह हो जाती अनजान,
वक्त पीछ ही पड गया िेर
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सोचा था घर बना िर बैठ ूंगी सुि न से
पर घर िी जरूरतों ने िुसामफर बना डाला िै था उस उलझी हुई राज़ सा,
सुि न िी बात ित िर ऐ गामलब वो थी जैसे खुली मिताब,
बचपन वाला 'इतवार' अब नहीं आता िै अपने राज़ बेपदाद िरने िो तैयार,
शौि तो िाूं बाप ि े पैसों से पुर होत हैं और वह बूंद िरने िो अपनी मिताब,
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अपने पैसों से तो बस जरूरत प री होती है
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जीवन ि े भाग दौड िें क्य ूं वक़्त ि े साथ रूंगत खो जाती है ददद िेरा गहरा था,
एि सवेरा था जब हूंस िर उठत थे हि और आज िई
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बार मबना िुस्ि ु राए ही शाि हो जाती है जा नहीं सिता था उसि साथ,
मितने द र मनिल गए ररश्त िो मनभात मनभात बोलने िो यह लब्ज़ सय्यि ना थे,
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खुद िो खो मदया हिने अपनों िो पात पात ना उसे छोडने िो यह हाथ,
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लोग िहत हैं हि िुस्ि ु रात बहुत हैं
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और हि थि गए ददद छुपात छुपात
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खुश ह ूं िैं सब िो खुश रखती ह ूं एि मदन िै मबना बताए चल मदया,
लापरवाह ह ूं मफर भी सबिी परवाह िरती ह ूं बूंद िर ि े अपनी मिताब,
िाल ि है िोई िोल िेरा नहीं मफर भी, वह बेहती रही नदी बनिर,
ि ु छ अनिोल लोगों से ररश्ता रखती ह ूं।। रह गया तो िेर पत्थर मदल पे एि दरार..
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SPECTRUM ISSUE 1 35