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Faculty Corner  Article
                               nkLrku , lQj&y[kuÅ





                                       अधमुंदी आँख  के दरीच  से झांककर उन गुज़रे  ए  दन  क  याद  के प   को खोलकर

                                       दखे ा तो बीते  ए कल के लखनऊ क  त वीर  दखी, िजसम  तहज़ीब, नफ़ासत,
                                       नज़ाकत, इ ादत और सख़ न नज़र आया, जो व त के साथ धुंधला सा गया ह।ै  वो नदी
                                       के  कनारे अमलतास और गुलमोहर के फू ल  से लद े पेड़, उन पर चहचहाती गौरैया।
                                       मौलवीगंज से ब घी पर सवार वो अ छे िमयां का चार आने क  मूली लेने के िलए आठ

                                       आने ब घी वाले को दने ा, उनक  वो अलम त टोपी और ज़नाब- आदाब अज़  ह,ै  कहना,
                                       िह द ू मुि लम स यता क  नुमाइंदगी करता, यह शहर, एक अलग दौर ए दा तां को
                                       बयां करता ह।ै



                                                     हर शाम ह ै शामे िम  यहाँ
                                                     हर शब ह ै शबे िशराज यहाँ
                                                     ह ै सारे जहाँ क  सोज़ यहाँ
                                                     और सारे जहाँ का साज यहाँ                              मज़ाज लखनवी



          चौक के राजा क  ठंडाई, राम आसरे क  िमठाई, मलाई म खन, मघई पान, अकबरी दरवाज़े से आती  ई तमाम   क म
          के ज़ायक  क  खुशबू, भूलभुलैया,  मी दरवाज़ा, गोला क़बाब, ईद क  सेवइयां, गलावटी क़बाब, िनहारी कु चा और
          चाय पर गु तगू, ऐसे ही नह , नवाब  के शहर लखनऊ क  ह ै एक अलग पहचान।  पड़ोिसय  के यहाँ जाकर बाहक़ खाना

          मांगकर खाना और वह  सो जाना, मोह ले का हर घर अपना सा लगता था।  कसी एक के यहाँ का जलसा पूरे मुह ले का
          जलसा होता था और सभी काम हाथ  हाथ िनपट जाते थे।  कसी एक घर के ब े,  दादा- दादी, नाना- नानी, बड़ी बी पूरे
          मोह ले वाल  म  इसी  र ते से बंधे होते थे, एक भरे- पूरे प रवार क  तरह। लोग या तो  र शा, ब घी, तांग  पर चलते या
           फर पैदल, मगर िज़दगी म त थी।  इंसान क  इंसािनयत से पहचान थी। सभी िमलजुलकर हर  यौहार मनाते थे, चाह े

          वो ईद हो या दीवाली,   समस हो या होली, यहाँ िह द,ू  मुसलमान, िसख, इसा  का फ़क  तो था ही नह । हम उतने ही
          चाव से शीरमाल, िबरयानी, ज़रदा खाते, िजतने चाव से वो गुिझया, दहीबड़,े  खीर, और कचौड़ी का ज़ायका लेते। फु स त
          के ल ह  म  कबूतरबाज़ी, पतंगबाज़ी, सैर- सपाटा, शेरो- शायरी और शामे-ए-अवध का दीदार,  ज़ंदगी को तरोताज़ा
          कर दते ा। चौक से चलने वाले तांगे हजरतगंज तक आते, सरकारी अफ़सरान  क  मुलाकात  के दौर नारायन  वी स और

           ािलटी रे टार ट होते और राजनेता इंिडयन कॉफ  हॉउस म । इन जगह  ने मु यमंि य  और मंि य  को सुना और दखे ा
          ह।ै  वो ठुमरी, दादरा, ग़ज़ल, कथक, तबला, दा तानगोई अब एफ. एम. पर सुनाई नह  दते ी पर हम गूगल पर  दखते ह।
           कसी शायर ने  या ख़ूब अज़   कया ह ै -



                                                     किशश ए लखनऊ अरे तौबा
                                                      फ़र वही हम, वही कैसरबाग़


          पौरािणक मा यता  के अनुसार 'ल मणावती' या 'ल मणपुर' नगर,  ेतायुग म  भगवान् िव णु के चौदहव  अवतार

          सूय वंशी राजा   ीरामचं  के अनुज  ाता ल मण,  िजनको िव णुशै या 'शेषनाग' का अवतार माना जाता ह,ै   ारा
           थािपत  कया गया ह ै और िजसका िज़  मोर न मुसा फ़र इ ेबतूता ने 'अलकनऊ' के नाम से तेरहव  शता दी म   कया,
          जो बाद म  'लखनऊ' शहर के नाम से जाना जाने लगा। अ ारहव  और उ ीसव  सदी म  सामािजक और सां कृितक
          िवकास जैसे धा म क िश ा, िच क सा, कलमकारी, इमारत  क  कारीग़री, चीनी िमटटी का काम, उद  ू शायरी, नाटक,



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