Page 174 - BEATS Secondary School
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बचपि, बुढ़ापा और ज़ िंदगी                                                                                        मन्ित साह की कविता
                                                                                                                                                                                                                                                                   ू




                                                                                                                                      -  बच्चों की िजर से                                                                                    कक्षा 9
             कछ कविताएँ, कछ कहानियाँ
                 ु
                                                             ु
                                                                                                                              (कछ कविताएँ)
                                                                                                                                  ु

                    - डीपीएसआई के  बच्चों की                                                                                                                                                                                                 बचपन क्य  है?






                                                                                                                                                                                                                                             बचपन वह समय है जब सूरज की ककरणें


                        कलम से
                                                                                                                              ऋवि मोहि की कविता                                                                                              आाँखों में नहीां चुभतीां

                 -
                                                                                                                                                                                                                                             जब उम्र ननकल ज ने की जल्दी नहीां होती

                                                                                                                              कक्षा 9

                                                                                                                                                                                                                                             बस आज को जीने की आश  बनी रहती



                                                                                                                                                                                                                                                                          ु
                                                                                                                                                                                                                                             जब हर टदन कछ कर ज ने की उम्मीद टदल में
                                                                                                                              कल तक तो म ाँ की गोद में सोत  थ

                                                                                                                                                                                                                                             बसी रहती
                                                                                                                              न ज ने समय इतनी जल्दी कै से गुजर गय

                                                                                                                                                                                                                                             जब ह र ज ने क  डर नहीां होत
                                                                                                                              म ाँ के  चूल्हे की रोटिय ां ख त  थ



                                                                                                                                                                                                                                                                      ू
                                                                                                                              आज तक मुाँह में स्व द बच  रह गय                                                                                बस खेलने कदने क  हौसल  बन  रहत


                                                                                                                              सुबह-श म इधर-उधर दौड़त                                                                                         जब म ाँ क  ह थ हम री पेश नी के  शशकां जों को




                                                                                                                              अब तो बबस्तर में पुतल  बनकर रह गय                                                                              सहल  देत



                                                                                                                                                                                                                                             जब द दी के  ह थ से कछ ख न  बबन ख ए ही पेि
                                                                                                                                                                                                                                                                                         ु
                                                                                                                              मूाँगफली द ाँतों से तोड़त


                                                                                                                              अब पनीर भी न चब य  ज त                                                                                         भर देत




                                                                                                                                                                                                                                                                                      ु
                                                                                                                              म ाँ से होती लड़ ई तो मन ने भी मैं ही ज त                                                                      जब छोिे-छोिे पैर बहत लांबे र स्ते न प लेते



                                                                                                                              आज जब मेरी ह लत खर ब                                                                                           जब छोिी-छोिी आाँखों में बड़े-बड़े सपने अक्सर


                                                                                                                                                                                                                                             झलक ज ते
                                                                                                                              तो कोई न पूछने आत



                                                                                                                              कल तक भगव न से न ज ने क्य -क्य  रह                                                                             जब ब ररश की बूाँदें हल्के  से चेहरे को सहल  देतीां




                                                                                                                              म ाँगत                                                                                                         जब कां धों पर बोझ शसफफ  ककत बों क  थ ,




                                                                                                                              लेककन अब तो जीने की भ वन  ही बुझ गई                                                                            ज़जम्मेद ररयों क  नहीां


                                                                                                                                                                                                                                             जब टदल की ही ब त जुब ां पर भी रहती
                                                                                                                              लग  थ  ज़ ांदगी होगी लांबी




                                                                                                                                                                                                                                                                                                ु
                                                                                                                              मगर गुजर गई ऐसे जैसे सुबह से श म                                                                               जब हम त रों को गगनते हए च ाँद को कह नी



                                                                                                                              ...                                                                                                            सुन य  करते







                                                                                                                                                                                                                                             मगर ननकल गय  वह बचपन





                                                                                                                                                                                                                                             वक़्त की रफ्त र से बीत गय  वह बचपन




                                                                                                                                                                                                                                             ल ख ब र रोकने पर भी चल  गय  वह बचपन,



                                                                                                                                                                                                                                             मेर  बचपन
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