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|| सुभाषिताषि ||
श्लोक 1 : चन्दिं शीतलं लोक,चन्दिादषि चन्रमााः |
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चन्रचन्दियोमध्य शीतला साधुसंगषताः ||
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अर्ात् : संसार में चन्दि को शीतल मािा जाता है लषकि चन्रमा चन्दि से भी
शीतल होता है |
अच्छ षमत्रों का सार् चन्र और चन्दि दोिों की तुलिा में अषधक. शीतलता दि वाला
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होता है|
श्लोक 2 : श्रोत्रं श्रुतिव ि क ुं डलि, दािि िाषिि तु क ं किि |
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षवभाषत कायाः करुिािरािां, िरोिकारि तु चन्दिि ||
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अर्ात् : कािों की शोभा क ु ण्डलों से िहीं अषितु ज्ञाि की बात सुिि से होती है | हार् दाि
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करि से
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सुशोषभत होत हैं ि षक क ं किों से | दयालु / सज्जि व्यषियों का शरीर चन्दि से िहीं
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बषकक
दूसरों का षहत करि से शोभा िाता है |
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श्लोक 3 : दयाहीिं षिष्फलं स्यान्िाषस्त धमस्तु तत्र षह ।
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एत वदा अवदााः स्यु दया यत्र ि षवद्यत े ॥
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अर्ात् : षबिा दया क े षकय गए काम का कोई फल िहीं षमलता, ऐस काम में धम िहीं
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होता| जहा दया िही होती वहां वद भी अवद बि जात े हैं|
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वाकसंयम मैरी का प्रर्म मंर ह।
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