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श्लोक 7 : िडव तु गुिााः िुंसा ि हातव्यााः कदाचि।
सत्यं दािमिालस्यमिसूया क्षमा धृषताः।।
अर्ात् : मिुष्य को कभी भी सत्य, दाि, कमण्यता, अिसूया (गुिों में दोि षदखाि की प्रवृषि
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अभाव ), क्षमा तर्ा धय – इि छाः गुिों का त्याग िहीं करिा चाषहए।
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श्लोक 8 : प्राप्यािदं ि व्यर्त कदाषच-दुद्योगमषन्वच्छषत चाप्रमिाः।
दुाःखं च काल सहत महात्मा धुरन्धरस्तस्य षजतााः सप्तिााः।।
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अर्ात् : जो धुरंधर महािुरुि आिषि िड़ि िर कभी दुखी िहीं होता, बषकक सावधािी क े सार्
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उद्योग
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का आश्रय लता है तर्ा समय िर दुाःख सहता है, उसक शत्रु तो िराषजत ही हैं।
श्लोक 9 : यो िोद्धतं क ु रुत जातु विं ि िौरुििाषि षवकत्र्तन्याि।
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ि मूषछत: कटुकान्याह षकषचचत् षप्रयं सदा तं क ु रुते जािो षह।।
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अर्ात् : जो कभी उद्यंडका-सा वि िहीं बिाता, दूसरों क े सामि अिि िराक्रम की डींग िही
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हांकता,
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क्रोध से व्याक ु ल होि िर भी कटुवचि िहीं बोलता, उस मिुष्य को लोग सदा ही प्यारा
बिा
लत हैं।
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श्लोक 10 : अिुबंधाििक्षत सािुबन्धिु कमसु।
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सम्प्रधाय च क ु वीत ि वगि समाचरत्।।
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अर्ात् : षकसी प्रयोजि से षकय गए कमों में िहल प्रयोजि को समझ लिा चाषहए। खूब सोच-
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षवचार
कर काम करिा चाषहए, जकदबाजी से षकसी काम का आरम्भ िहीं करिा चाषहए।
-उजाला शमश्रा
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िी.जी.िी (सस्कि)
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सि बोलन क शलए कोई िैयारी नही करनी पड़िी, सि हमिा दिल स तनकलिा ह।
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