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               अर्ात् : षबिा दया क े षकय गए काम का कोई फल िहीं षमलता, ऐस     े         काम     में  धम म   िहीं
               होता| जहा ाँ

                         दया िही होती वहां वद भी अवद बि जात हैं|
                                                    े
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               श्लोक 4 :   ि ह्रश्यत्यात्मसम्माि िावमािि तप्यत ।
                             गंगो ह्रद इवाक्षोभ्यो य: स िंषडत उच्यत।।
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               अर्ात् : जो अििा आदर-सम्माि होि िर ख़ुशी से फ ू ल िहीं उठता,                    और अिादर होि  े
                                                   े
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               िर क्रोषधत िहीं होता तर्ा गंगाजी क े क ु ण्ड             क े समाि षजसका मि अशांत िहीं होता,
               वह ञािी कहलाता है।।





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               श्लोक 5 : िन्चाग्नन्यो मिुष्यि िररचया: प्रयत्ित: ।
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                             षिता माताषग्निरात्मा च गुरुश्च भरतिभ।।




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               अर्ात् : भरतश्रष्ठ ! षिता, माता अषग्नि,आत्मा और गुरु – मिुष्य को इि                   िांच
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               अषग्नियों की बड़ यत्ि से सवा करिी चाषहए।



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               श्लोक 6 :  िड् दोिा: िुरुििह हातव्या भूषतषमषच्छता।
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                             षिरा तन्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्सूत्रता ।।



               अर्ात् : ऐश्वय या उन्िषत चाहि वाल िुरुिों को िींद, तन्रा (उंर्िा ), डर,        क्रोध,आलस्य
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               तर्ा दीर्सूत्रता (जकदी हो जाि वाल कामों में अषधक समय लगाि की आदत )- इि छ: दुगुिों को त्याग
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               दिा चाषहए।
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                    एक िांि मन िुनौतियों क खखलाि सबस बडा ा़  हधर्यार होिा ह ।
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