Page 24 - E-Book 22.09.2020
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धरा क पुकार
                                                                      माला मुखज



               जागो मानव अब तो जागो।
                  ृ

                कित से माफ मागो।।
               धरा, जो लाख  टन उपजाती।

               जन मानस क भूख िमटाती।।
               जरा नह  हो तुम िहचकते।
               रोज जहर तुम उसे िपलाते।।
                         य  उसे दूिषत हो करते।
                        अपना भिव य यूँ कलुिषत करते।।

                        िनत वन  को उजाड़ रहे हो।
                        धरा को  मशान बना रहे हो।।

               तु हारी करतूत  जीवन िनगल रही है।
                         म

                लोबल वा ग से बफ िपघल रही है।।
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               अपने पैर  न क हाड़ी मारो।
               कल अपना न नरक बनाओ।।
                        मानव तुम बन गये हो दानव।
                         वाथ  बन करते हो ता डव।।
                        तुमने अब तक कछ नह  छोडा।
                                      ु
                                           ड़
                        िग , चीता, शेर न क ा- मकोड़ा।।
                        अभी समय है संभल भी जाओ।
                        जैव स पदा  थ  न गवांओ।।

               अनमोल धरोहर है धरा इसे मत करो बरबाद।
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               गोबर कड़े कचर से बन जाता है खाद।।
               खुद समझो सबको समझाओ।
               जैिवक खेती ही अपनाओ।।
                        ब द करो िवष का कारखाना।
                        वरना कल पडेगा पछताना।।

                        तब तक देर हो चुक होगी।
                        यह धरा तुमसे मुँह मोड़ लेगी।।
                  ृ
                कित और जीवन है अनमोल।
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               िबक नह  यह  सी भी मोल।।

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               बन कर धरा क र  खाओ।
               धरती माँ का मोल चुकाओ।।
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