Page 61 - CHETNA January 2019 - March 2019FINAL_Neat FLIP
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दीपक के मुहिं पर जैसे ककसी ने एक साथ की तमाचे जड़ हदए. मुख
में ज़हर भर हदया र्या हो. उसकी आँखों के सामने अचानक ही
अन्धकार छा र्या. सररता ने उसे बेबसी से देखा. देखा तो दीपक तड़प
कर ही रह र्या. साथ ही सररता भी जैसे तड़पती हई बहत लाचार हो
ु
ु
र्ई. इस प्रकार कक जैसे ककसी जीती-जार्ती नारी को उसके सुहार् के
रहते हए भी ककसी गचता के हवाले कर हदया र्या हो. उसने दीपक को
ु
किर एक बार बेबसी में अपने हाथ मलते हए देखा. जी भर कर. शायद
ु
आणख़री बार. सोचा उसने ककतने ही ढेरों-ढेर सपने सजा के रखे हए थे.
ु
क्या-क्या सपनों के महल खड़े ककये थे. परन्तु क ु छ भी साकार न हो
सका. ऊपर वाले को शायद ये सब मिंजूर नहीिं था. सररता से जब दीपक
का प्यार बाज़ी हारा हआ चेहरा नहीिं देखा र्या तो वह शीघ्र ही अपनी
ु
पलकों के आिंसू पोंछती हई कोठी के अिंदर चली र्ई और त्रबस्तर पर
ु
गर्रते ही ि ू ट-ि ू ट कर रो पड़ी.
दीपक किर एक बार अके ला रह र्या.
ये कै सा मज़ाक था? समय का? उसकी अजस्थर और त्रबर्ड़ते
शमजाजों वाली पररजस्थयों का? ऐसा कक एक पल में ही क्या से क्या हो
जाता है. पल में क ु छ और दूसरे पल में क ु छ. मानव क्या सोचता है
और उसे शमलता क ु छ और ही है. क्या बनाता है और क्या बन जाता है.
बोता क ु छ है और काटता क ु छ है. शायद यही मानव जीवन है? यही
मानवीय जीवन का प्रततिल है कक, सारी जज़न्दर्ी मिंजजल की तलाश में
चलते-चलते वह माि एक राही बनकर ही रह जाता है.
- शेष अर्ले अिंक में..
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चेतना पहढ़ये और आर्े बहढ़ये
61 | चेतना जनवरी 2019 - माचच 2019