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ककवताएं


                          बोवधसति की दो कविताएं











                                                            नवें दशि िे िकवयों ्ें बोकधसतव िी अपनी पहचान है. यद्कप उनिा
                                                            पहला ही संग्ह 'कसफ्फ िकव नहीं' उनिे िकव होने िी गवाही देता था,
                                                            पर बाद ्ें आए 'दुख तंत्' से उनहोंने िकवता िो एि िुशल पटिथा ्ें
                                                            बदल कदया. 'ह् जो नकदयों िा संग् हैं' ्ें जैसा नुिीलापन उनिे यहां
                                                            है वह अब उत्रोत्र कहंसि होते स्य ्ें और धारदार हुआ है. उन्ें
                                                            नागाजु्णन और कत्लोचन िे शुरुआती कदनों िी आहट सुन पड़ती है. इस
                                                            बड़बोले स्य ्ें बोकधसतव िा बोलना ्ायने रखता है कि अब उनहोंने
                                                            िकवता िे उच्चादशषों िी परवाह िरनी छोड़ दी है. उनिी िकवताएं इस
                                                            देश िे भकवष्यफल िी इबारत हैं. आजादी िा नया ्ेटाफर खोजती हुई
                                                            ये िकवताएं भी.                 - डॉ ओम यन्िल


                               बोयधसति
                                                                      लेदकन अब कया करे ?
                            abodham@gmail.com
                                                                      निी सिुद्र कूप सरोवर
                     सवतंत्र छोटा बादल                                तडाग वापी ताल झरने
                                                                      सब के सब हैं लगे िरने .
                      दिन डूबने के करीब
                      एक छोटा बािल दिला                               इस छोटे बािल के पास
                      वह सवतंत्र था .                                 दकसी को द्रदवत करने भर का जल नहीं है
                                                                      और सवप्न िेख सकने के दलए
                      वह इतना सवतंत्र था दक                           कोई नींि भरा आंचल नहीं है
                      उसके पास न पानी था                              अपने सपनों को रोपने के दलए
                      न कहीं जाने का पता                              कोई थल नहीं है .
                      न चराचर जगत िें कोई सराय थी उसकी
                      जहां वह थोडी िेर दवश्ाि कर सके .                इतनी सूनी
                                                                      इतनी वीरान आंखें िैंने और नहीं िेखी कहीं
                      वह थोडा-थोडा करके बना था .                      जैसे धूल की बनी हों
                                                                      जैसे राख से भरी हों .
                      थोडा राि युग िें
                      थोडा सुिािा युग िें                             िैं िूसरी दििा िें बढ़ दनकला
                      थोडा अकबर के युग िें                            वह राख की आंख से िुझे िेर तक िेखता रहा
                      थोडा िारादिकोह के सिय िें                       िन ही िन पता नहीं कया परखता लेखता रहा .
                      थोडा गांधी युग िें
                      थोडा बचा दहससा                                  वह सवतंत्र बािल
                      अभी कुछ दिन पहले ही जुडा है .                   जखि के कपडे पहने था
                                                                      वह घाव की गेंि दलए था
                      अब वह पूर्ण है.                                 वह धूल के जूते पहने था
          24   I गंभीर समाचार I w1-15 अगस्त, 2017w
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