Page 305 - E-Magazine 2016-17
P. 305

जीवनदान


               नददयों का मन उतना गहरा , जितनी पहाड़ की ऊाँ चाई
               धरती की सारी बातें पंछी ने अंबर को िा बतलाई
               पेड़ – पेड़ की हवा अलग नहीं ,धूप कहीं ना कम ज़्यादा
               हवा बताए मौसम का रुख़ ,कब बरसेंगे ररमखझम मेघा

         भाँवरा फ ू ल – फ ू ल पर बैिे ,बााँटे उसकी मधुर सुगंध
         कोयल को ही पता है होता , कब आएगा मधुर वसंत ।
         हररयाली ना के वल अपनी आाँखों को सुख देती है,

         ये सूरि की तापन को धरती पर कम कर देती है ।
               पत्ता – पत्ता छाया देकर, खुद गरमी को सहता है
                                                                               Madhav Menon VI—G
               सारी गंदी हवा समेट कर, प्रार् वायु हमें देता है

               समझो ’देना’ रीत प्रीत की, अच्छाई का मान करो
                 िीवन शमलता एक बार ही ,जितना भी हो दान करो ॥
                                           हदशा द्र्ववेदी (IX F)





                        गुडिया के  मन की बाि


         स्क ू ल से आकर िल्दी से, भागकर मेरे पास आती थी
         सारे ददन की पूरी कहानी, मुझे तुम सुनाती थी ।
               मेरे शलए बाज़ार से, कं घी – रबड़ ले आती थी

               प्यार से मेरे बाल संवार, चोटी मेरी बनाती थी।
         यह सब तो थी बचपन की बातें, पर अब सब क ु छ अलग है
         आि के  इस आधुतनक युग में, इस पुरानी गुड़ड़या की फकसी को न कद्र है

               बचपन में तेरी थी मैं सहेली , सदा साथ-साथ रहते थे ।
               इनका तो साथ न छ ू टेगा , घर वाले सब कहते थे ।
         समझ सकती हाँ , उलझी हो तुम नोट्स ,प्रोिेकट्स बनाने में
                      ू
         पर तुम चूक गई हो , हमारी दोस्ती तनभाने में ।
               ख़ुदा से दु आ करुाँगी , सदा सलामत रहे मेरी रेिम की गुड़ड़या
               अगर अके ली पड़ िाऊाँ  , सदा साथ रहेगी मेरी गुड़ड़या ॥

                                           मानसी बख्शी (IX –I )
                                                                                    Aditi R. III—H




                         र्वश्वास

         ’पवश्वास’ एक छोटा ’िब्द’ है,
         उसको पढ़ने में तो एक सेकें ड लगता है,
         सोचो तो शमनट लगता है,

         समझो तो ददन लगता है,
         पर साबबत करने में तो जज़ंदगी लगती है।
                          वरलिमी नवीन एम 9-E
                                                                                     Harshit BIsht V—I
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