Page 63 - Akaksha (8th edition)_Final pdf
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आणदवासी णहदी कणवता में प्रणतणबणबत स्ती-जीवन का य्ा्या
पूजा गुप्ा, सहा्यक प्रध्यावपका,
बहन- शवीम्वी ब्यू्ी गुप्ा, कतनष्ठ अनुवादक
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आदिवासी र्बि अंग्रजी भारा क ट्ाइब र्बि का जमीि की लडाई को सही अथशों में लडा िा सके । इि
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दहिी रूपातर ह। आदिवानसयों को दहिी म िििानत, कपवयों में रामियाल मुंरा, अिुि लुगुि, ग्रेस कु िूर,
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काििवासी. अरणयक बिवासी आदि संज्ा भी प्रिाि महािेव टोपपो, ओली नमंि, जयोनत लकडा, आलोका
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की िाती ह। पववि क एक िही अपपतु अिक कु िूर, िनसंता के रके टटा, निनतर्ा खलखो, निम्षला
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भागों म िििानतया पाई िाती ह। भारतवर्ष पुतुल, नर्नर्र टुरू, नर्वलाल दकसकू , रोि के रके टटा,
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की कल ििसंखया म स सात प्रनतर्त लोग सरोि करकटटा, गलरसि रुंगरुंग, सरसवती गागराई
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िििातीय या आदिवासी ह। आदिवासी और सररता नसंह बडाइक आदि ह। इनहोंि
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िीवि की पररभारा क संबंि म श्री अपिी कपवताओं म यथाथ्ष को जसथर िही
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रािीब लोिि र्मा्ष का कहिा ह- अपपतु पररवत्षिर्ील और गनतर्ील
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“आहदवासवी ्यांत्त्क्ा स दूि हैं। दिखाया ह। कमलविर ि नलखा ह,
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उनकी प्रोद्योधगकी अववकसस् ह। “्य्था्थ्ष कोई जस्थि ्तव नहीं ह,
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व ककसवी सवीमा ्क पशु-पक्क््यों वह तनि्ि गत्मान ह औि उसक
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का सा प्राक ृ त्क जवीवन व्य्वी् हज़ािों पहलू हैं, जो आदमवी को
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कि्े हैं। सभ्य जवीवन की बदल्े जा्े हैं। वविाि, परिवश,
िकािौंि वहाँ नहीं ह।” भौत्क आिाि औि संबिों का
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िििानतयों की अपिी तनि्ि संरिमण हो्े िहन की
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भारा, अपिी संसकनत, अपिी ्िल जस्थत् ही ्य्था्थ्ष जस्थत्
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परपरा, िीवि िीि की र्ैली ह।” इि कपवयों ि अपिी
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एवं अपि िवी-िवता होत ह। कपवताओं क माधयम स अपिा
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लदकि सोिि वाली बात यह ह भोगा हुआ सतय और साथ ही
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दक िंगल-िमीि क साथ इिका अपि समाि की सामाजिक,
अजसततव और इिकी भारा और वैयपक्तक िीवि-संघर्ष की समसयों
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संसकनत भी हानर्ए की ओर ह। को वयक्त दकया ह। कवनयत्री निम्षला
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िििानतयों क मातृभारा क संबंि पुतुल क भोग हुए िीवि का यथाथ्ष
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म ररपुरमण लाल िास का कहिा ह इस प्रकार है- "उन हदनों हमािी बस्वी
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- “जनजात््यों ्या आहदवासस्यों को अभवी में शहिी लोगों का आना-जाना बढ़न लगा
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भवी अपनवी मा्ृभाषा में सशक्ा पान का अवसि ्था, िूँकक सन्ाल आहदवासस्यों की बस्वी होन
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नहीं समला ह औि मणणपुिी को छोड़कि उनकी क ना्े दारू-्ाड़वी-हडड़्या बनाकि बिन का ििा प्रा्यः
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कोई भवी मा्ृभाषा संवविान की आ्ठववीं अनुसूिवी में सभवी घिों में िल्ा ्था। पवीन- खान क बहान िोज
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समाववष् नहीं ह।” शाम ढल शहिी लोग आ्े औि दि िा् ्क हड़दग
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मिा्े। हँसवी-्ठट्ा, गाली गलौज, खवीिा-्ानवी, माि-
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कलमरूपी तीर को आदिवासी कपवयों ि यथाथ्ष क
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पवी् आम बा् हो गई ्थवी। कोई िोकन-्ोकनवाला
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रूप म अपिी कपवताओं म पपरोया तादक िंगल और
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