Page 64 - Akaksha (8th edition)_Final pdf
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नहीं।...... मदमों की ्ो बा् दूि, क ु छ खास महहलाओं पुरुर वि्षसववािी, पपतृसत्ततमक समाि और
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को भवी इनलोगों न अपना प्न् बना सल्या ्था भूमंरलीकरण के िौर में भी स्ती मुपक्त और स्ती
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जजसक सहाि पूिी बस्वी में इनका जो मन हो्ा सवतंत्रता के प्रश्न िहाँ से प्रारंभ हुआ था, वहीं पर
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सो कि्े ्थ। िोज इन लोगों क सा्थ दो-िाि नए जसथर िाि पडता है। आि भी उसके अजसततव के
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लोग आ्े औि िवीि-िवीि व लोग भवी अपना पाँव ऊपर ठपपा लगाया गया है। वह अपिे दहससे की
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पसािन लग्े। जजसका सबस घा्क परिणाम बस्वी िमीि तलार्ती हुई गुम हो िाती है िंगलों में।
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की महहलाओं की इजज्-आवरू पि पड़न लगा। मैं भवी वह सवयं को स्ती की दृपष्ट से िेखे िािे से मुक्त
्यह सब क ु छ दख्े-सुन्े ही बड़वी हो िही ्थवी, मैहट्रक होिा िाहती है। वह िूर दृपष्ट रखते हुए अपिा सथाि
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्क आ्े- आ्े इन लोगों की हिक्ों को तनक् स खोििा िाहती है-
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दखन समझन लगवी ्थवी। ऐस माहौल में िह्े हए “मैं सव्यं को सव्यं की दृजष् स दख्े
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अ्सि मुझे भवी उनकी कामुक दृजष् का सशकाि होना
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मु्् होना िाह्वी हँ अपनवी सत्वी जात् स।”
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पड़्ा ्था। दो-एक बाि इनक जाल में फ ँ स्े-फ ँ स्े
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‘बयाह’ कपवता क माधयम स मंिू जयोतसिा
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बिवी भवी। पि कि्वी भवी ््या ? कहाँ भागकि जा्वी ?”
ि एक आदिवासी स्ती की त्रासिी को उिागर दकया
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आि भी समाि म जस्तयों क साथ दकस प्रकार ह। बयाह क पचिात ् माता-पपता का घर छोड कर
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का वयवहार दकया िाता ह। आजािी क 73 वर्ष एक स्ती िब िूसर क घर िाती ह तो उसका िीवि
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बाि भी जस्तयों की िीवि गाथा स कोई अिनभज् दकस तरह िरकीय हो िाता ह, इसी की अनभवयपक्त
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िही ह। एक तरफ माता आदि कहकर पूित ह इस कपवता म की गई ह। ससुराल म लडदकयों
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तो िूसरी ओर उसका र्ोरण दकया िा रहा ह। क साथ र्ोरण, अतयािार, िहि क नलए िलािा,
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स्ती-भूणहतया, बलातकार, िंगा घुमािा, भगवाि क खत और घर संभालिा और यह सब बुििी, मंगरी,
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िाम पर छोड िि िैस कई अमािवीय बता्षव उि सोमारी िैसी पीदडत सहनलयों क उिाहरण िख ह।
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पर हो रह ह। सदियों स उस िूसरी आँख स िखा वह ऐस पुरुर िानत का पवरोि करती ह िो स्ती को
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िा रहा ह। उसक पविारों को िबाया िाता रहा ह। नसफ िूलहा और पबसतर क मादफक समझता ह।
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उसक र्रीर को पुरुरों विारा पागल कत्त की तरह वह कहती ह-
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िोिि का इनतहास भी कही ि कही िरूर रहा ह।
“वप्ा मिी शादी म् किना
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इि मदहलाओं म जयािातर संखया उि मदहलाओं
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मैंन दखवी ह- बुिनवी की जज़ंदगवी
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की ह, िो िनलत आदिवासी समाि स ह। कपवताओ
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बाल बचि सँभाल ख् में ख््वी ह ै
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क माधयम स उस प्रतादडत मदहला की आतमा की
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उसका मद साँझ, सबि, िा्
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िीख, उसकी मिि क नलए पुकारती आवाज- पहाडों,
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माि्ा ह कक्ना।”
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िंगलों और घादटयों म िगाड की तरह बिि लगती
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ह। पहाड दहलि लगत ह। कवनयत्री निम्षला पुतुल सररता नसंह बडाइक िी की कपवताए स्ती को
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की कपवताओ विारा स्ती अजसमता क प्रश्न उभारकर सवंत्रता दिलािे की दहमायती दिखती हैं। उिकी
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सामि लाए गए ह। पट की आग बुझाि क नलए कपवता स्तीपात्र ग्रामीण पररवेर् के साथ एक अलग
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दििभर काम और घर का िानयतवबोि ऐसा िोहरा नित्र प्रसतुत करती है। िैसे करमी, बुििी, फगुिी,
िबाव आदिवासी जस्तयों पर होता ह। वह कहती ह- सुनगया अपिी रोिमरा्ष के कामों का अजसततव
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क साथ यथाथ्ष मौिूि ह। उिकी ‘मुझ भी कछ
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“्न क भूगोल स पि े
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कहिा ह’ कपवता म अपि पप्रयवर क नलए स्ती क
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एक सत्वी क े
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अजसततव का संिर् िती ह। वह अपि िीवि क
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मन की गाँ्ठ खोल कि
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हर उम्र को कस झलती ह और घर क सिसयों को
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कभवी पढ़ा ह ्ुमन े
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िूलह स लकर पबसतर तक खुर् रखकर भी कस
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उसक भवी्ि का खौल्ा इत्हास।”
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