Page 12 - E-Book 22.09.2020
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‘‘ओ नदी’’
अप णा अंजन
ओ नदी,
तू यूं बह रही
इतने धीर गंभीर,
हताष, उदास!
यूं नही तुझम, वो पहले सी बात!
वो मन का उजास,
वो िमठा सा हास,
अधूरी सी यास पर पूरी सी आस!
ओ नदी,
वो देख........
ाकल है रि मयाँ
ु
करने अठखेिलयाँ,
ं
धवल तरग से,
ं
सातो ही रग से,
तू अपनी तरग को,
ं
मन क उमंग को,
कर दे आजाद, बहने दे िनबा ध,
करने दे गजन, जी भर क नत न,
े
ल
े
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हटा क ये ककड़, ये कांट ये क ,
ं
कल-कल, छल-छल,
हर पल, अिवरल
क
े
नार जो टट तो
ू
े
े
कवल िबखरती ह ,
गढ़ली गढ़ी और उथली सी झील ,
तू तो ‘नदी’ है,
पावन औ िनम ल।
तू बहती जा, बहती जा,
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